Lord Shiva: चिकित्सकों के चिकित्सक भगवान शिव

भगवान् रुद्र (Lord Shiva) ने ओषधियों का निर्माण करके जगत का इतना कल्याण किया है कि वेद ने भी भगवान् शङ्करके सम्पूर्ण शरीर को ही भेषज मान लिया है। कहा भी गया है कि –

या ते रुद्र शिवा तनू शिवा विश्वस्य भेषजी ।
शिवा रुद्रस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे ॥ (अथर्वेद)

Lord shiva

आयुर्वेद भगवान् शिव के रूप में ही अभिव्यक्त हुआ था, इसलिये भगवान् शिव के पास मृतसंजीवनी नाम की विद्या थी। इस विद्या से मरे हुए प्राणियों को जीवित किया जा सकता है। इस विद्या को भगवान् शङ्कर ने शुक्राचार्य को दिया था। कहानी कुछ इस प्रकार है-

अंगिरा और भृगु ये दोनों प्रख्यात ऋषि हैं। इन दोनों के एक एक पुत्र हुए। अंगिरा के पुत्रका नाम था जीव (बृहस्पति) और भृगु के पुत्र का नाम था कवि (शुक्र) रखा गया। जब दोनों का यज्ञोपवीत संस्कार हो गया, तब दोनों ऋषियोंने में निर्णय हुआ कि हम दोनों में से कोई एक इन दोनों को पढ़ायेगा और दूसरा अन्य कार्य करेगा। अंगिरा ने कहा – ‘कवि को भी मैं अपने पुत्रके साथ पढ़ाऊँगा।’

भृगु ने यह सुनकर कवि (शुक्र) को अंगिरा की सेवा के लिये सौंप दिया। किंतु अंगिरा गुरु के पथ से डिग गये। वे अपने पुत्र जीव को शुक्र से अधिक विद्वान् बनाने के लिये एकान्तमें पढ़ाने लगे। शुक्र को यह भेद-भाव अच्छा न लगा। शुक्र ने गुरु के चरणों को पकड़कर क्षमा याचना करते हुए कहा- ‘गुरुजी! आप अपने कर्तव्य से डिग गये हैं। किसी भी गुरु को पुत्र और शिष्य में भेदभाव नहीं रखना चाहिये, किंतु उस भेदभाव को आप कर रहे हैं, इसलिये मैं चाहता हूँ कि आप मुझे अपनी सेवासे मुक्त कर दें। मैं किसी और गुरु के यहाँ जाऊँगा।’

शुक्र मेधावी बालक थे। उन्होंने सोचा कि विद्या ग्रहण करने के पहले पिताजी के पास चलना ठीक नहीं है। पिताजी को प्रसन्नता तब होगी, जब योग्य बनकर ही उनके पास पहुचूँ। वे अच्छी-से-अच्छी विद्या प्राप्त करना चाहते थे।

संयोग से महर्षि गौतम मिल गये। शुक्रने उनसे पूछा- ‘श्रीमन् ! आप मुझे ऐसा गुरु बताइये, जिसके पास ऐसी विद्या हो जो और किसी के पास न हो। मैं उसी विद्या को पढ़ना चाहता हूँ।’ महर्षि गौतम ने शुक्र को भगवान् शङ्कर के पास भेजा गौतमी गङ्गा (गोदावरी) में स्नान करके शुक्र ने भगवान् शङ्करकी श्रद्धा भक्तिपूर्वक तन्मय होकर प्रार्थना की।

भगवान् शंकर उनके प्रेम से आर्द्र हो गये और वर माँगने को कहा। शुक्रने हाथ जोड़कर कहा ‘भगवन् ! जो विद्या ब्रह्मा आदि देवताओं को भी न प्राप्त हो, उस विद्याको आप हमें दें।

शुक्र की तपस्या से भगवान् आशुतोष बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- ‘वत्स! मैं तुम्हें ऐसी विद्या दे रहा हूँ, जिसका ज्ञान मेरे अतिरिक्त और किसी को नहीं है। मैंने इस निर्मल विद्याका निर्माण महान् तपस्या के बल पर किया है। इसका नाम ‘मृतसंजीवनी’ है।

इस अवसरपर एक प्रश्न का उठना स्वाभाविक है कि सम्पूर्ण वेद के आविर्भावक जब ब्रह्मा हैं तो उनको इस मृतसंजीवनी विद्याका ज्ञान कैसे नहीं रहा ? बात यह है कि वेद अनन्त हैं- ‘अनन्ता वै वेदाः’ (तैत्ति० ब्रा०)। जिस ब्रह्मा को तपस्या के बल से वेद की जितनी शाखाएँ सुन पड़ती हैं, उतनी ही शाखाओंके वे जानकार हो पाते हैं। जैसे वर्तमान ब्रह्मा का दूसरा परार्ध चल रहा है, इससे पचास वर्ष पहले जब इन्होंने कमल पर तपस्या की थी तो इनको उन अनन्त वेदों में से केवल 1121 शाखाएँ सुनायी पड़ी थीं। इसके पहले किसी ब्रह्माको 1981 शाखाएँ सुनायी पड़ी थीं।

भगवान् शङ्करने स्वयं कहा है कि मैंने मृतसंजीवनी विद्याका निर्माण बहुत बड़ी कठिन तपस्या के बलपर किया है, इससे अनुमान होता है कि भगवान् शङ्कर की तपस्या ब्रह्माजी की तपस्यासे बढ़कर थी। भगवान् शङ्कर दयालुओं में दयालु और चिकित्सकों में सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक हैं।

दक्ष प्रजापति के बकरे का सिर जोड़ना

एक बार दक्ष प्रजापति ने एक महान् यज्ञ का आयोजन किया। जिसमे शिव-सती को छोड़कर सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया। जब यह बात देवी सती को पता चली तो उनसे अपने पिता के द्वारा अपने पति का अपमान सहा नहीं गया और अपने शरीरको योगाग्नि में भस्म कर दिया। भगवान् शङ्कर ये सह नहीं सके और उन्होंने वीरभद्र को भेजकर दक्षयज्ञ का विध्वंस करवा दिया और दक्ष के सिर को काटकर दक्षिणाग्रि में डाल दिया।

विश्व के कल्याण-हेतु देवताओं ने यज्ञ की पूर्तिको आवश्यक समझा और ब्रह्माको आगे करके भगवान् शङ्कर के पास पहुँचे। उन लोगों ने भगवान् शङ्कर से प्रार्थना की- ‘भगवन् ! यज्ञकी पूर्ति तो होनी ही चाहिये और वह आपके आशीर्वाद से ही सम्भव है। भगवान् शङ्कर ने कहा कि दक्ष जैसे नासमझों के अपराध की न तो मैं चर्चा करता हूँ और न ही स्मरण। मैंने तो केवल सावधान करने लिये ही दक्ष को दण्ड दिया था। इसके बाद भगवान् शङ्कर ने देवताओं की प्रार्थना पर कृपा करके बकरे के सिर को दक्ष के शरीर में जोड़ दिया और दक्ष जीवित हो गये। चूँकि दक्ष का सिर जल गया था इसलिए बकरे के सिर का प्रयोग किया गया।

गणेश का सिर जोड़ना

एक बार माता पार्वती, गणेश जी को पहरेदारी करने का आदेश देकर स्नान करने एक लिए चली गयी। माता ने कहा कि जब तक वह स्नान कर रही हैं तब तक के लिये गणेश किसी को भी घर में प्रवेश न करने दे। तभी द्वार पर भगवान शंकर आए और बोले “पुत्र यह मेरा घर है मुझे प्रवेश करने दो।” गणेश के रोकने पर प्रभु ने गणेश का सर धड़ से अलग कर दिया। गणेश को भूमि में निर्जीव पड़ा देख माता पार्वती व्याकुल हो उठीं। तब शिव को उनकी त्रुटि का बोध हुआ और उन्होंने गणेश के धड़ पर गज (हाथी) का सर लगा दिया।

इस घटना से सूचित होता है कि भगवान् शङ्कर केवल अपनी आध्यात्मिक शक्ति का ही नहीं, अपितु कुछ ओषधियों का उपयोग भी अवश्य किया होगा। आध्यात्मिक शक्ति से तो वे दक्ष या गणेश का पहला सिर भी ज्यों-का-त्यों बना सकते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि बकरे अथवा हाथी का सिर जोड़ना शल्यक्रिया से सम्बन्ध रखता है।

साभार- आरोग्य अंक

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