Newborn Problems: नवजात शिशुओं की आम समस्याएं
बच्चे के जन्म से ले कर डेढ़-दो महीने तक उसे अतिरिक्त देखभाल की जरूरत पड़ती है। अगर उसकी छोटी-छोटी बातों पर नजर ना रखी जाए तो ये हेल्थ इश्यू कल को नुकसानदेय भी हो सकते हैं।
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नवजात शिशुओं की आम समस्याएं (Common health issues of newborn babies in Hindi)
भारत में नवजात शिशुओं मौतों के प्रमुख कारणो में प्री मेच्योरिटी / प्रीटरम (35 प्रतिशत), नवजात संक्रमण (33 प्रतिशत), इंट्रा-पार्टम संबंधी जटिलताएं, (20 प्रतिशत), जन्मजात विकृतियां (9 प्रतिशत) है। हालांकि पहले से के मुकाबले इन की दरों में गिरावट आई है, लेकिन अभी भी यह समस्या काफी गंभीर है।
ईश्वर ना करे आपके बच्चे को कभी स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या हो। इसलिए आपको नवजात शिशुओं से जुड़ी प्रमुख समस्याओं की जानकारी होना अत्यंत आवश्यक है।
जन्म के बाद तुरंत न रोना (Newborns child not cry)
गर्भ में बच्चे को मां से ऑक्सीजन मिलता है। बच्चा जैसे ही मां से अलग होता है उसे मां से ऑक्सीजन मिलना बंद हो जाता है। जन्म के समय रोने पर शिशु के शरीर में पर्याप्त ऑक्सीजन जाती है और उसके दिमाग का विकास होता है।
अगर बच्चा तुरंत ना रोए तो दिमाग तक ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती। ऐसे शिशुओं में मेंटल और फिजिकल रिटार्डेशन होने की आशंका रहती है। यही वजह है कि जन्म के बाद अगर बच्चा खुद नहीं रोता है, तो उसे हल्की सी चपत लगाकर रुलाया जाता है।
शिशुओं में संक्रमण की समस्या (Infection Is Dangerous For Newborn Child)
नवजात शिशु में नाक, कान, आंख, मुख और नाभि में संक्रमण होने का खतरा अधिक होता है। जन्म के बाद शिशु बहुत कमजोर और कोमल होता है, जिस कारण वह शीघ्र ही दूसरों के संपर्क में आकर संक्रमित हो सकता है।
गंदे हाथ से शिशु को स्पर्श, गंदे कपड़े, तेल या पावडर का इस्तेमाल भी संक्रमण का कारण बन सकता है। इसलिए बच्चों के साथ विशेष एहतियात की जरूरत होती है।
जब भी शिशु को उठाएं उससे पहले अपने हाथों को धो लें। उसको पहनाए जाने वाले कपड़े, तौलिया, बिस्तर आदि सब मेडिकेटिड फैब्रिक वॉश में धुले हों। शिशु की नैप्पी समय-समय पर चेक करते रहें कि वो गीली तो नहीं है। शिशु को बार बार चूमे नही।
समय से पूर्व प्रसव (Premature Birth)
आमतौर पर गर्भावस्था 40 हफ्तों की होती है, लेकिन कभी-कभी गर्भावस्था के सातवें या आठवें महीने में ही प्री-मेच्योर डिलीवरी हो जाती है।
समय से पूर्व जन्मे बच्चों को गर्भ में विकसित होने का पूरा समय ना मिल पाने के कारण वे कई गंभीर बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं । आटिज्म, सेरेवल पॉल्सी, सांस संबंधी समस्याएं इनमें प्रमुख हैं।
पीलिया होना (jaundice in newborn)
पीलिया (Jaundice) लिवर से जुड़ी एक बीमारी है जिसमें त्वचा का रंग पीला और आंखें सफेद हो जाती है। नवजात शिशु में पीलिया होना आम समस्याओं में से एक है।
यह खून में बिलूरुबिन नामक पदार्थ के बढ़ने के कारण होता है। सामान्यतः शिशु के जन्म के बाद एक से दो हफ्ते के अंदर पीलिया आसानी से ठीक हो जाता। लेकिन इस दौरान डॉ की सलाह और शिशु की देखभाल बेहद जरूरी है। अगर लंबे समय तक बिलरूबिन का स्तर अधिक रहे तो शिशु को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ सकता है।
नवजात बच्चों में पीलिया हो तो उन्हें फोटोथेरेपी के अलावा धूप से भी फायदा रहता है। डॉक्टरी ईलाज के बाद यह ठीक हो जाता है,
कुपोषण (Malnutrition)
कई बार बच्चे जन्म लेते समय बहुत कम वजन का होता है और उसे सांस भी देनी पड़ जाती है। उसे काफी दिनों तक इंक्यूबेटर में भी रखा जाता है।
जब मां गर्भावस्था में अपने खाने-पीने पर ध्यान नहीं देती या किसी बीमारी से ग्रसित होती है तो उसका अजन्मा शिशु पोषक तत्त्व ग्रहण नहीं कर पाता और वह इतना कमजोर होता है कि मां के स्तनों से दूध भी नहीं खींच सकता। उसे नली द्वारा या चम्मच से दूध देने की कोशिश की जाती है।
दूध उगलना (Reflux and posseting)
शिशु कई बार स्तनपान के थोड़ी देर बाद दही जैसा फटा दूध मुंह से उगल देते हैं, जो सामान्य है। जब भी बच्चा दूध पी चुका हो तो उसे कंधे से लगा कर धीरे-धीरे उसकी पीठ पर तब तक थपकी दें जब तक उसको डकार ना आ जाए।
पेट में गैस होना (Gas in newborn baby)
जब शिशु स्तनपान करते हैं या बोतल से दूध पीते हैं तो वे दूध के साथ हवा भी अंदर ले लेते हैं, तो यह समस्या हो जाती है। मां के द्वारा खाए जाने वाले भोजन को जब शिशु दूध के रूप में लेता है तो भी उसे गैस की समस्या हो जाती है, तभी तो मां को हल्का और सुपाच्य भोजन लेने को कहा जाता है।
गैस होने पर बच्चा अपनी टांगों को इकट्ठा करके रोने लगता है। ऐसा होने पर थोड़ी-सी हींग को हल्के पानी में घोल लें व उसकी नाभि के चारों तरफ लेप करें, आराम मिलेगा।
नैपी रैश (Diaper rash)
नैपी रैश शिशुओं में काफी आम हैं, खासकर कि नौ से 12 महीनों की उम्र के शिशुओं में। इसलिए, यदि कभी शिशु की नैपी बदलते समय आपको उसके नितंब की त्वचा लाल दिखाई दे तो, परेशान न हों। कोशिश करें कि बच्चे को घर की बनी सॉफ्ट व सूती कपड़े की नैप्पी पहनाएं।
आजकल मार्किट में कई तरह के क्रीम व पाउडर रूप में बेबी प्रॉडक्ट्स उपलब्ध हैं, जिनसे त्वचा को बिना नुकसान हुए आराम मिलता है।
बार बार पौटी और सू सू करना
एक महीने से छोटे शिशु को कम से कम एक दिन में 7-8 बार डायपर बदलने की जरूरत पड़ती है। बच्चा चार-पांच बार सू-सू व पौटी करता है। हर बार दूध पीने के बाद बच्चे की यह क्रिया दर्शाती है कि बच्चा पर्याप्त दूध पी रहा है।
स्तनपान करने वाले बच्चों को फॉर्मूला मिल्क लेने वाले बच्चों की तुलना में ज्यादा डायपर की जरूरत पड़ सकती है। ब्रेस्ट मिल्क पचाने में आसान होता है और इसीलिए स्तनपान करने वाले बच्चे ज्यादा पॉटी और पेशाब करते हैं।
ऐसे में शिशु की नैप्पी समय-समय पर चेक करते रहें कि वो गीली तो नहीं है। गीली नैप्पी से शिशु को सर्द मौसम में उसे बुखार, निमोनिया जैसी बीमारियां घेर सकती हैं। गर्मियों में त्वचा गीली होने के कारण संक्रमित हो सकती है।
बर्थ इंजरी (Birth injury)
कई मामलों में बच्चे के जन्म के समय उन्हें कई तरह की इंजरी हो जाती है। ये नवजात शिशुओं में सामान्य है और ठीक भी हो जाती है। कई बार जन्म के वक्त शिशु गर्भ में उल्टा हो जाता है और सिर की में बजाय टांगें पहले बाहर आती हैं, शिशु का सिर बड़ा होना, उसके कंधे फंस जाना, गर्भनाल का शिशु की गर्दन पर लिपट जाना आदि।
मां का दूध ना मिल पाना
डिलीवरी के बाद स्तनों में जो पहला गाढ़ा पिला दूध आता है, उसे कोलोस्ट्रम कहते हैं। कोलोस्ट्रम में बीटा-कैरोटीन की उच्च मात्रा के कारण ही इसका रंग गहरा पीला या संतरी होता है। डिलीवरी के बाद कम से कम 5 दिनों तक कोलोस्ट्रम आता है।
इस दूध से नवजात शिशु को कई तरह के लाभ मिलते हैं। कोलेस्ट्रम बच्चे को कई तरह की बीमारियों से बचाता है, क्योंकि यह रोग प्रतिरोधक होता है। इसलिए डॉक्टर भी जन्म के 1 घंटे के भीतर शिशु को मां का पहला गाढ़ा दूध पिलाने की सलाह देते है।
शिशु को कम से 6 महीने तक सिर्फ मां का दूध ही पिलाना चाहिए। लेकिन किसी कारणवश कभी-कभी मां के स्तनों में दूध नहीं उतरता और शिशु इस अनमोल द्रव्य से वंचित रह जाता है, तब उसे बाजार से मिलने वाले कृत्रिम पाउडर मिल्क या गाय का दूध दिया जाता है।